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जुलै, २०११ पासूनच्या पोेस्ट दाखवत आहे

मैं गीत क्यूँ गाऊँ ?

गिद्धों के झुण्ड आते हैं जीवित देह नोंच चले जाते हैं आँखे बंद कर हम जी लेते हैं एक पत्थर भी ना उठा पाऊँ मैं गीत क्यूँ गाऊँ ? क्रुद्ध पवन रोज बहता हैं बेघर करता हैं, तन जलाता हैं ना ये मन हमारा व्यथित होता हैं एक नीड़ भी ना बना पाऊँ मैं गीत क्यूँ गाऊँ ? तिमिर यहाँ प्रतिपल होता हैं सूर्य पर विकट हँसता हैं हम भी तिमिर के साथ हो लेते हैं एक दीपक भी ना जला पाऊँ मैं गीत क्यूँ गाऊँ? बेरंग जगत के रंगरेज़ लोग मुखौटा पहने चालबाज़ लोग एक मुखौटा मैं भी पहना हूँ यह भी तो ना उतार पाऊँ मैं गीत क्यूँ गाऊँ ? खौफ़ के साये में रोज जीते लोग घर लौटे तो दीवाली मनाते लोग आज थोडा हँस के जी लेता हूँ क्या पता कल घर आ ना पाऊँ मैं गीत क्यूँ गाऊँ? ---- पुणे - ०३-०३-११ , बंगलोर - ०१-०५-११ ; १४-०७-११