गज़ल - ग़ालिब तेरी दिल्ली में

देख ये अराजकता , हाहाकार; ग़ालिब तेरी दिल्ली में
देख ले जम्हूरी* नाटक,व्यापार; ग़ालिब तेरी दिल्ली में

वक़्त ये ग़दर* का ना हो, पर 'मातम-ए-यक शहर-ए-आर्ज़ू'* है
हर गली, सड़क,कूचा,जमनापार; ग़ालिब तेरी दिल्ली में

कब खड़ा मसीहा हो, कब किस रामलीला, जंतरमंतर पर
कौन बन उठे गाँधी या सरदार ; ग़ालिब तेरी दिल्ली में

जो उखाड़ने आए खरपतवार ; खुद अब उसका हिस्सा हैं
हर हकीम हो जाता है बीमार;ग़ालिब तेरी दिल्ली में

छोड़ कर गया था दिल्ली तू जो कभी के वैसी ही तो है
वो सियासतें, खूनी कारोबार ग़ालिब तेरी दिल्ली में


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*जम्हूरी = जम्हूरियत का;गणतंत्र का

*ग़दर = 1857 का ग़दर

*मातम-ए-यक शहर-ए-आर्ज़ू* = आरजू(कामना)के शहर (के उजड़ने) का मातम(शोक) ;
( ग़ालिब का एक शेर ,जो 1857 की दिल्ली की तबाही के बाद लिखा गया था।
            
  "अब मैं हूँ और मातम-ए-यक शहर-ए-आरज़ू
   तोड़ा जो तूने आईना, तिमसाल दार था  "
)

--- स्वामी संकेतानंद ,
२१ जनवरी, २०१४,
नई दिल्ली 

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